Description
मानव जीवन में धर्म सदा एक प्रबल प्रेरक शक्ति रहा है। इसने मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रायः सभी पहलुओं को प्रभावित किया है। एक दृष्टि से मानव के विचार, भावनाओं एवं आचार पर इसका प्रभाव विज्ञान एवं तकनीकी से भी गहरा है जो दृष्ट की अपेक्षा अदृष्ट अधिक है। यह जीवन को आस्थावान बनाते हुए आशावादिता का संचार करता है। साथ ही यह मानवीय आचरण का नियामक रहा है। बिना धार्मिक आधार के सदाचार- शिक्षा निर्बल रहती है। वर्तमान स्थिति में ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म मानव जीवन का एक अविभाज्य अंग बन गया है। चाहे अनचाहे, अभिज्ञ अनभिज्ञ रूप से मानव अपने चिन्तन व क्रिया-कलापों में इससे प्रभावित है। हमारे सामने धर्म के होने या न होने का विकल्प नहीं खुला है। मानव की वर्तमान प्रकृति एवं मनोवृत्ति को देखते हुए धर्म की अपरिहार्यता अमिट सी लगती है। ऐसा आभासित होता था कि विज्ञान के विस्तार से धर्म का प्रभाव संकुचित होता जाएगा, परन्तु यथार्थ में ऐसा हुआ नहीं है। भले ही सैद्धान्तिक रूप में धर्म की अनिवार्यता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है और व्यावहारिक जीवन में इसका चेतन या अचेतन पटल पर गहन प्रभाव स्पष्ट है, मानवीय स्वभाव के कारण इसमें अनेक विकृतियाँ प्रविष्ट हुई हैं। इससे धर्म का उदात्त रूप क्षत-विक्षत होकर हेय एवं विनाशक भी रहा है। जो धर्म मानव के हित के सम्पादन के लिये प्रस्तुत हुआ, वही उसके योग-क्षेम का साधक न होते हुए बाधक बना है। अतः हमारे सामने विकल्प है सुसंस्कृत धर्म को अपनाना या विकृत धर्म के दुष्प्रभाव से संचालित होना । वस्तुत, विकृतधर्म धर्म नहीं है पर हम अज्ञान से उसे ही धर्म मान बैठते हैं।
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