Description
षट् वेदाङ्गों में निरुक्त एक वेदाङ्ग है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि वेद के अध्ययन के लिये इसकी उपयोगिता है, क्योंकि अङ्गों (वेदाङ्गों) को विना जाने अङ्गी (वेद) के स्वरूप को नहीं जाना जा सकता। निरुक्त की समता यत्किञ्चित् व्याकरण से की जा सकती है, क्योंकि वह शब्द के माध्यम से अर्थ तक जाने का प्रयास करता है। निरुक्त निर्वचनविज्ञान का नाम है। निर्वचन उस प्रक्रिया का नाम है, जिसमें शब्द के वर्तमान स्वरूप से मूल स्वरूप तक की यात्रा की जाती है। इसका स्वरूप व्याकरण में प्रचलित व्युत्पत्ति से भिन्न होता है। व्युत्पत्ति में केवल शब्द के प्रकृति-प्रत्यय को स्पष्ट किया जाता है, जबकि निर्वचन में ध्वन्यात्मकता के आधार पर, इतिहास का आश्रय लेकर, अर्थ के स्वरूप का विवेचन किया जाता है।
आचार्य यास्क के निरुक्त पर प्रथम आचार्य दुर्ग और द्वितीय आचार्य स्कन्दस्वामी एवं महेश्वर के भाष्य प्रमुख है। यास्क का अध्ययन करते समय प्रायः बहुत कम ही विद्वानों ने इन दोनों के भाष्यों को उद्धृत किया है। प्रस्तुत कार्य में यथासम्भव इन दोनों के भाष्यों का अवलोकन एवं समीक्षा की गई है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत पुस्तक में जहाँ प्राचीन भाष्यकारों को यथा अवसर सम्मिलित किया गया है, वहीं निरुक्त के आधुनिक चिन्तकों जैसे- वी.की. राजवाडे, डॉ० लक्ष्मण सरूप, डॉ० सिद्धेश्वर वर्मा प्रभूति मनीषियों के विचारों को उद्धृत कर समीक्षा भी की गई है। यास्क ने निघण्टु या प्रसंगवश जितने भी निर्वचन किये हैं, उनका भी विवेचन किया है। जहाँ यह कार्य अपनी सरलता के लिये जाना जाएगा, वहीं यह यास्क के स्पष्ट और विस्तृत विवेचन के लिये भी जाना जाएगा
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